मुखवा निवासी पूर्व प्रधानाचार्य और गंगोत्री के वयोवृद्ध तीर्थ पुरोहित विद्या प्रसाद सेमवाल के अनुसार दीवाली के रूप में मनाया जाने वाले सेल्कू पर्व के पीछे इस क्षेत्र के निवासियों का अतीत में तिब्बत से गहरा करोबारी संबंध एक प्रमुख वजह माना जाता है। अश्विन मास तक घाटी वाले इलाकों से ताजा अनाज व अन्य सामग्री इस सीमांत इलाकें में उपलब्ध हो जाती थी और इसी बीच बुढेरा व्यापारियों के लाव-लश्कर कोे नेलांग दर्रे के रास्ते तिब्बत पहुंचाने के लिए बुग्यालों से चरवाहों के साथ लौटी बकरियां व घोड़े मुहैया हो जाते थे। सरहदों पर बेरहम सर्दी का पहरा बैठने से पहले बुढेरे व्यापारी तिब्बत की ज्ञानिमा मंडी में कारोबार में जुटे रहते थे और इसी दौरान उनके परिवार भी शीतकालीन प्रवास हेतु निचली घाटियों में चले जाते थे। इस बीच दीवाली का पर्व गुजर जाया करता था। लिहाजा ऐसा माना जाता है कि बुढेरों ने अपनी कारोबारी सहूलियतों और सर्द मौसम की दुश्वारियों को देखते हुए तिब्बत रवाना होने से ठीक पहले ‘सेल्कू‘ पर्व के रूप में दीवाली मनाने का चलन शुरू किया। तिब्बत के साथ इस क्षेत्र के दर्रों के जरिए होने वाला कारोबार 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद बंद पड़ा है। लेकिन पीढियों से जारी इस अनूठी विरासत के प्रति बुढे़रों का प्रबल आग्रह और लोक परंपराओं के प्रति गहरा अनुराग अभी तक बदस्तूर कायम है। स्थानीय निवासियों की लोक देवता समेश्वर में अटूट आस्था है। लोक मान्यता है कि समेश्वर देवता कुल्लू-कश्मीर क्षेत्र से यहां आए और यहीं के होकर रह गए। देवता के आह्वान के लिए सेलकू में गाए जाने ‘कफुआ‘ गीत में इन मान्यताओं का विस्तार से वर्णन सुनने को मिलता है।
